Here’s a set of best Ghazals Of Mirza Ghalib

Ghalib Ghazal  1 :

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ, जो चश्मे-तर’ से उम्र यों दम-ब-दर्मा निकले

निकलना ख़ुल्द’ से आदर्मा का सुनते आए थे लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क्रामर्ता की दराज़ी’ का
अगर उस तुर्र-ए-पुर-पेच-ओ-ख़र्म’ का पेच-ओ-ख़म निकले

हुई इस दौर में मंसूर्बा’ मुझसे बादा-आशामी’
फिर आया वह ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम” निकले

हुई जिनसे तवव़क़ो” ख़स्तगी’ की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता-ए-तेगे-सितम’ निकले

अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

जरा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम’ निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देखकर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज्ञालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही क़ाफ़िर सनम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले

Ghalib Ghazal 2 :

ज़ौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या
कहते हैं, हम तुमको मुँह दिखलाएँ क्या

रात-दिन गर्दिश में हैं सात आस्मां
हो रहेगा कुछ-न-कुछ घबराएँ क्या

लाग हो तो उसको हम समझें लगाव
जब न हो कुछ भी, तो धोखा खाएँ कया

हो लिये क्यों नामाबर के साथ-साथ
या रब! अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यों न जाए
आस्तान-ए-यार से उठ जाएँ क्या

उम्र भर देखा किए मरने की राह
मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या

पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्‍याथा कि हम निकले

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Ghalib Ghazal 3 :

नक़श’ फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तसवीर का

काव-कार्व-ए सख्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

जज़्बा -ए-बेअखतियारे-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दमा शमशीर का

आगही दामे-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुदूदआ अन्क्रा है अपने आलमे-तक़रीर का

बस कि हूँ  ग़ालिब असीरी  में भी आतिश-ज़ेर-पा
मूए-आतिश-दीदा  है हल्क़ा मेरी ज्ंजीर का

Ghalib Ghazal 4 :

धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द’ था
इश्क्रे-नबर्द-पेशा’ तलबगारे-मर्दी था

था ज़िंदगी में मर्ग’ का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था

तालीफ़ -ए-नुस्ख़ा-हाए-वफ़ा’ कर रहा था मैं
मजमूअ-ए-ख़याला अभी फ़र्द-फ़र्दी था

दिल ता ज़िग़र”, कि साहिल ‘-ए-दरिया-ए-खूं है अब
उस रहगुज़र में जलवा-ए-गुल आगे गर्द था

जाती है कोई कश्मकश अन्दोहे-इश्क़ की
दिल भी अगर गया, तो वही दिल का दर्द था

अहबाब चारा-साज़ी-ए-वहशत’ न कर सके
ज़िंदां  में भी ख़याल बयाबां-नवर्दी था

यह लाश बेकफ़न ‘असदे-ख़स्ता-जां  की है

Ghalib Ghazal 5 :

सरापा’ रहने-इश्क़ -ओ-नागुज़ीरे-उल्फ़ते-हस्ती’
इबादत बरक़ की करता हूँ और अफ़सोस हासिल का

बक़दरे-ज़रफ़’ है साक़ी ख़ुमारे-तश्नाकार्मी’ भी
जो तू दरिया-ए-मैं’ है, तो मैं ख़मियाज़ा’ हूँ साहिल का