इड्कबाल की शेरो-शायरी
इक़बाल: संक्षिप्त जीवन परिचय
“सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा…” मशहूर गीत के रचयिता मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 787 को सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ। अल्लामा इकबाल नाम से मशहूर इक्रबाल कवि, दार्शनिक, राजनेता और बैरिस्टर थे। उन्होंने लाहौर में आरंभिक शिक्षा के बाद कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शन में डिग्री, लंदन से बैरिस्टर की डिग्री और म्यूनिख विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की। यूरोप से भारत लौटकर लौटकर उन्होंने वकालत को आजीविका बनाया।
उन्होंने उर्दू और फारसी दोनों में साहित्यिक रचनाएँ कीं, ल्लेकिनअधिकांश रचनाएँ फ़ारसी में कीं। इक़्बाल की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने इन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया।
इकबाल के जेहन में हमेशा वह हिंदुस्तान था, जो किसी सरहद में नहीं बँटा था, लेकिन बाद में वे पाकिस्तान के ही हिमायती बनकर रह गए। जहाँ एक ओर उन्होंने लिखा–‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ तो वहीं दूसी ओर एक अलग मुसलिम राज्य बनाने का विचार भी उन्होंने ही रखा। पाकिस्तान में उनका लिखा
–लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी’, कौमी तराना बन गया। 2 अप्रैल, 938 को मोहम्मद इक़बाल का निधन हो गया।
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
यों तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो बताओ तो मुसलमान भी हो
अगर कज-है हैं अंजुम आसमां तेरा है या मेरा
मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यों हो जहाँ तेरा है या मेरा
आगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकां ख़ाली
ख़ता किसकी है या रब ला-मकां तेरा है या मेरा
उसे सुबह-ए-अज़ल इन्कार की जुरअत हुई क्योंकर
मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा
मुहम्मद भी तिरा जिबरील भी कुरआन भी तेरा
मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तर्जुमाँ तेरा है या मेरा
इसी कौकब की ताबानी से है तेरा जहाँ रौशन
ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी ज़ियाँ तेरा है या मेरा
एजाज़ है किसी का या गर्दिश-ए-ज़माना
टूटा है एशिया में सेहर-ए-फ़िरंगियाना
ये बंदगी ख़ुदाई वो बंदगी गदाई
या बंदा-ए-ख़ुदा बन या बंदा-ए-ज़माना
ग़ाफ़िल न हो ख़ुदी से कर अपनी पासबानी
शायद किसी हरम का तू भी है आस्ताना
कभी हमसे कभी गैरों से शनासाई है
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
ख़ुदावंदा ये तेरे सादा-दिल बंदे किघर जाएँ
कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
चराग़-ए-राह है मंज़िल नहीं है
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा,
तू भी अभी न-तमाम मैं भी अभी ना-तमाम
आह कि खोया गया तुझसे फ़क़ीरी का राज़
वर्ना है माल-ए-फ़क़ीर सल्तनत-ए-रूम-ओ-शाम
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
क्या चाँद तारे कया मुर्ग ओ माही
कुछ क़द्र अपनी तूने न जानी
ये बे-सवादी ये कम-निगाही
ख़रिद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं
तिरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं
हर इक मक़ाम से आगे मक़ाम है तेरा
हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं
गिरँँ-बहा है तो हिफ़्ज़-ए-ख़ुदी से है वरना
गुहर में आब-ए-गुहर के सिवा कुछ और नहीं
सिखलाई फ़रिश्तों को आदम की तड़प उसने
आदम को सिखाता है आदाब-ए-ख़ुदावंदी
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है
शायद कि उतर जाए तिरे दिल में मिरी बात
अपने मन में डूबकर पा जा सुराग़-ए-ज़िंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है आता है घन जाता है घन
पानी पानी कर गई मुझको क़लंदर की ये बात
तू झुका जब गैर के आगे न मन तेरा न तन
मन की दुनिया में न पाया मैंने अफ़रंगी का राज,
मन की दुनिया में न देखे मैंने शैख्र ओ बरहमन
हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए,
हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन
फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार
ऊदे ऊदे नीले-नीले पीले-पीले पैरहन
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